اَيَّامًا مَّعْدُوْدٰتٍۗ فَمَنْ كَانَ مِنْكُمْ مَّرِيْضًا اَوْ عَلٰى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ اَيَّامٍ اُخَرَ ۗ وَعَلَى الَّذِيْنَ يُطِيْقُوْنَهٗ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِيْنٍۗ فَمَنْ تَطَوَّعَ خَيْرًا فَهُوَ خَيْرٌ لَّهٗ ۗ وَاَنْ تَصُوْمُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ ( البقرة: ١٨٤ )
Ayyaman ma'doodatin faman kana minkum mareedan aw 'ala safarin fa'iddatun min ayyamin okhara wa'ala allatheena yuteeqoonahu fidyatun ta'amu miskeenin faman tatawwa'a khayran fahuwa khayrun lahu waan tasoomoo khayrun lakum in kuntum ta'lamoona (al-Baq̈arah 2:184)
Muhammad Faruq Khan Sultanpuri & Muhammad Ahmed:
गिनती के कुछ दिनों के लिए - इसपर भी तुममें कोई बीमार हो, या सफ़र में हो तो दूसरे दिनों में संख्या पूरी कर ले। और जिन (बीमार और मुसाफ़िरों) को इसकी (मुहताजों को खिलाने की) सामर्थ्य हो, उनके ज़िम्मे बदलें में एक मुहताज का खाना है। फिर जो अपनी ख़ुशी से कुछ और नेकी करे तो यह उसी के लिए अच्छा है और यह कि तुम रोज़ा रखो तो तुम्हारे लिए अधिक उत्तम है, यदि तुम जानो
English Sahih:
[Fasting for] a limited number of days. So whoever among you is ill or on a journey [during them] – then an equal number of other days [are to be made up]. And upon those who are able [to fast, but with hardship] – a ransom [as substitute] of feeding a poor person [each day]. And whoever volunteers good [i.e., excess] – it is better for him. But to fast is best for you, if you only knew. ([2] Al-Baqarah : 184)
1 Suhel Farooq Khan/Saifur Rahman Nadwi
(वह भी हमेशा नहीं बल्कि) गिनती के चन्द रोज़ इस पर भी (रोज़े के दिनों में) जो शख्स तुम में से बीमार हो या सफर में हो तो और दिनों में जितने क़ज़ा हुए हो) गिन के रख ले और जिन्हें रोज़ा रखने की कूवत है और न रखें तो उन पर उस का बदला एक मोहताज को खाना खिला देना है और जो शख्स अपनी ख़ुशी से भलाई करे तो ये उस के लिए ज्यादा बेहतर है और अगर तुम समझदार हो तो (समझ लो कि फिदये से) रोज़ा रखना तुम्हारे हक़ में बहरहाल अच्छा है