فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ شَهْرَيْنِ مُتَتَابِعَيْنِ مِنْ قَبْلِ اَنْ يَّتَمَاۤسَّاۗ فَمَنْ لَّمْ يَسْتَطِعْ فَاِطْعَامُ سِتِّيْنَ مِسْكِيْنًاۗ ذٰلِكَ لِتُؤْمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖۗ وَتِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ ۗوَلِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابٌ اَلِيْمٌ ( المجادلة: ٤ )
Faman lam yajid fasiyamu shahrayni mutatabi'ayni min qabli an yatamassa faman lam yastati' fait'amu sitteena miskeenan thalika lituminoo biAllahi warasoolihi watilka hudoodu Allahi walilkafireena 'athabun aleemun (al-Mujādilah 58:4)
Muhammad Faruq Khan Sultanpuri & Muhammad Ahmed:
किन्तु जिस किसी को ग़ुलाम प्राप्त न हो तो वह निरन्तर दो माह रोज़े रखे, इससे पहले कि वे दोनों एक-दूसरे को हाथ लगाएँ और जिस किसी को इसकी भी सामर्थ्य न हो तो साठ मुहताजों को भोजन कराना होगा। यह इसलिए कि तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमानवाले सिद्ध हो सको। ये अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाएँ है। और इनकार करनेवाले के लिए दुखद यातना है
English Sahih:
And he who does not find [a slave] – then a fast for two months consecutively before they touch one another; and he who is unable – then the feeding of sixty poor persons. That is for you to believe [completely] in Allah and His Messenger; and those are the limits [set by] Allah. And for the disbelievers is a painful punishment. ([58] Al-Mujadila : 4)
1 Suhel Farooq Khan/Saifur Rahman Nadwi
फिर जिसको ग़ुलाम न मिले तो दोनों की मुक़ारबत के क़ब्ल दो महीने के पै दर पै रोज़े रखें और जिसको इसकी भी क़ुदरत न हो साठ मोहताजों को खाना खिलाना फर्ज़ है ये (हुक्म इसलिए है) ताकि तुम ख़ुदा और उसके रसूल की (पैरवी) तसदीक़ करो और ये ख़ुदा की मुक़र्रर हदें हैं और काफ़िरों के लिए दर्दनाक अज़ाब है